कहा जाता है कि बचपन में तुलसीदास का नाम रामबोला था और उनकी पत्नी का नाम रत्नावती था.
रत्नावती काफी सुंदर थी और तुलसीदास उनसे बहुत प्यार करते थे.
एक समय की बात है, जब रत्नावती अपने मायके गई थी. तुलसीदास उनसे दूरी सह नहीं पाए. फिर वे शव के सहारे अपनी पत्नी से मिलने गए.
सावन महीने की भयानक रात को तुलसीदास को रत्नावती की याद सताने लगी.
बारिश और तुफान का रौद्र रूप था, फिर भी वे रत्नावती से मिलने के लिए गंगा तट तक जैसे-तैसे पहुंचे.
लेकिन नदी की तेज धाराओं के कारण उन्हें नदी पार करने के लिए कोई भी नाविक नहीं मिला.
तब नदी में एक तैरती हुई लाश पर तुलसीदास की नज़र गई, उस ही लाश को पकड़कर तुलसीदास ने उसके सहारे नदी पार की.
रत्नावती के मायके पहुंचने के बाद तुलसीदास को समझ नहीं आया कि वे उनके कमरे तक कैसा पहुंचे.
उसके बाद उन्होंने रस्सी समझकर खिड़की से लटकते सांप को पकड़ लिया और कमरे में पहुंच गए.
तुलसीदास ने अपनी पत्नी को इस पूरे सफर की कहनी बताई. जिससे वे क्रोधित हो गई.
तुलसीदास को समझाते हुए उन्होंने कहा-
“अस्थि चर्म मय देह ये, तां सो ऐसी प्रीत। नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत”।।
अर्थात्- हड्डी और मास से बने इस शरीर से इतना प्रेम. अगर इतना प्रेम तुमने भगवान राम से किया होता, तो जीवन सुधर जाता.
रत्नावती के इस कथन ने तुलसीदास के पूरे जीवन का आधार ही राम नाम बना दिया.
जिसके बाद तुलसीदास ने रामचरितमानस और हनुमान चालीसा जैसी कई अद्भुत रचनाएं बना डाली.