हिंदू धर्म में हफ्ते के सातों दिन किसी न किसी देवी-देवता को समर्पित है. इन सातों दिनों में से शनिदेव का दिन शनिवार का माना जाता है. सौरमंडल में इनका छठा ग्रह होता है. इन्हें सबसे क्रूह ग्रह माना जाता है. ये लोगों के कर्मों के अनुसार उन्हें फल देते हैं. इसलिए इन्हें कर्म फल दाता भी कहा जाता है. शनिदेव बुरे कर्म वालों को जितना बड़ा दंड देते हैं, उतना ही अच्छे कर्म वालों पर अपनी कृपा बनाएं रखतें हैं. शनि जितने सख्त है, उतने सौम्य भी हैं. सूर्यदेव को शनिदेव का पिता माना जाता है. लेकिन फिर भी इन दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहता है. आइए पौराणिक कथाओं के माध्यम से जानते है कि शनिदेव को अपने ही पिता सूर्यदेव से शत्रुता क्यों है?
पौराणिक कथा के अनुसार, सूर्य भगवान का विवाह राजा दक्ष की पुत्री संज्ञा के साथ हुआ था. विवाह के पश्चात,दोनों के मनु, यमराज और यमुना के नाम से तीन बच्चे हुए. परंतु सूर्य के प्रकाश का तेज काफी अधिक होने के कारण संज्ञा विचलित रहती थी.
इस समस्या के समाधान के लिए संज्ञा गुहार लगाते हुए अपने पिता राजा दक्ष के महल पहुंची. संज्ञा की व्यथा सुन राजा दक्ष ने उसे वापिस सूर्यलोक जाने के लिए बोला और कहा कि वहीं तुम्हारा घर है. तभी संज्ञा ने सूर्यदेव से दूर रहकर तपस्या करने का विचार किया. संज्ञा ने बिल्कुल अपनी जैसी छाया नाम की एक हमशकल बना दी. ताकि उसे देख सूर्यदेव पहचान न पाएं कि वो संज्ञा नहीं है. छाया पर सूर्य के तेज का प्रभाव बिल्कुल नहीं पड़ता था. कुछ समय पश्चात् सूर्य देव और छाया की भी तीन संतान हुई. जिनका नाम तपती, भद्रा और शनि था. छाया का पुत्र होने के कारण शनि देव का रंग सांवला था. जिसके चलते सूर्यदेव ने उन्हें अपना पुत्र मानने से इनकार कर दिया.

इससे क्रोधित होकर शनिदेव की कू दृष्टि सूर्य पर पड़ी. जिससे उनका रंग काला पड़ गया. सूर्यदेव वो शापित चेहरा लेकर भोलेनाथ के समक्ष गए. भगवान शिव ने उन्हें सभी हकीकत से अवगत कराया. भोलेनाथ की बात सुन सूर्यदेव को अपनी गलती का आभास हुआ और छाया से माफी मांगी. लेकिन तभी से शनिदेव ने अपने पिता से शत्रुता पाल ली.
आज भी यदि किसी के घर में शनि और सूर्य यदि एक स्थिति में आते है, तो शनि और सूर्य की तरह उस घर के बाप-बेटे में भी अनबन पैदा हो जाती है.