जब भी हम श्रीकृष्ण का ध्यान करते हैं तो मन में एक मनोहारी छवि उभरती है – हाथ में बांसुरी, सिर पर मुकुट और उसमें सजा मोरपंख। यह अद्भुत शृंगार कृष्ण के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन चुका है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि भगवान कृष्ण ने मोरपंख को ही क्यों चुना? आइए जानते हैं इसके पीछे छिपे गहरे अर्थ और रहस्य।
हिन्दू धर्म में कृष्ण भगवान के अलग-अलग स्वरूप हैं। किसी के लिए वह बालक हैं तो किसी के लिए वह द्वारकाधीश हैं। किसी के लिए वे उनके प्रेमी हैं तो किसी के लिए वे तारानहार। लेकिन इन सबमें कृष्ण की एक बात सामान्य है और वो हैं दूसरों के लिए निःस्वार्थ प्रेम और मासूम सा नटखट स्वभाव। कृष्ण को बहुत सारे नामों से जाना जाता है। कान्हा, लड्डू गोपाल, गोविंद, माधव, बंसीवाला, मोरपंखधारी जैसे न जाने और कितने नामों से कान्हा को पुकारा जाता है। कृष्ण की कहानियों में उनके स्वरूप, नटखटपन और चरित्र के बारे में खूब बखान मिलता है। बचपन से ही श्रीकृष्ण को माँ यशोदा ने मोरपंख में ही सजा कर रखा था।
मोरपंख का प्रतीकात्मक महत्व
- पूर्णता का प्रतीक: मोरपंख के 108 रेशे होते हैं जो वैदिक मंत्रों की संख्या के अनुरूप हैं।
- आनंद और नृत्य का प्रतीक: जिस प्रकार मोर आनंद में नृत्य करता है, वैसे ही कृष्ण का संपूर्ण जीवन आनंदमय था।
- रंगों का संगम: मोरपंख में सभी रंग समाहित हैं जो कृष्ण के सर्वव्यापी स्वरूप को दर्शाता है।

पौराणिक कथा
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब कृष्ण वृंदावन में रासलीला कर रहे थे, तब मोरों ने उनके नृत्य से प्रसन्न होकर अपने पंख उन्हें अर्पित कर दिए। तभी से कृष्ण ने इसे अपने शीश पर धारण करना प्रारंभ किया।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी देखें तो मोरपंख नकारात्मक ऊर्जा को अवशोषित करते हैं और सकारात्मकता का संचार करते हैं। इसके साथ ही यह मस्तिष्क को शांत रखने में सहायक होते हैं।
राधा से प्रेम की निशानी है ‘मोरपंख’
कान्हा के पास मोरपंख का होना राधा से उनके अटूट प्रेम की निशानी माना जाता है। मान्यताओं के अनुसार, एक बार कृष्ण की बांसुरी पर राधा नृत्य कर रहीं थी। तभी उनके साथ महल में मोर भी नाचने लगे। इस दौरान एक मोर का पंख नीचे गिर गया। तब श्री कृष्ण ने इसे अपने माथे पर सजा लिया था। उसी के बाद से मोरपंख को उन्होंने राधा के प्रेम के प्रतीक के रूप में माना। जिसे वे सदा अपने से लगाकर रखते हैं। यही कारण है कि आज भी श्रीकृष्ण की प्रतिमा भी बिना मोरपंख के नहीं दिखेगी।
कालसर्प योग की वजह से ‘मोरपंख’
सदियों से कहा जाता है कि मोर और सांप की दुश्मनी है। यही वजह है कि कालसर्प योग में मोरपंख को साथ रखने की सलाह दी जाती है। मान्यता है कि श्रीकृष्ण पर भी कालसर्प योग था। कालसर्प दोष का प्रभाव कम करने के लिए भी भगवान कृष्ण पर माँ यशोदा हमेशा मोरपंख लगाया करती थी।
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श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम शेषनाग के अवतार थे। मोर और नाग को एक-दूसरे का दुश्मन माना गया है। लेकिन कृष्ण जी के माथे पर लगा मोरपंख यह संदेश देता है कि वह शत्रु को भी विशेष स्थान देते हैं।