भीष्म पितामह ने मकर संक्रांति के दिन ही क्यों त्यागे थे अपने प्राण?

भीष्म पितामह ने मकर संक्रांति के दिन ही क्यों त्यागे थे अपने प्राण?

भारतवर्ष के साथ समस्त संसार में मकर संक्रांति को खूब महत्व दिया गया है. मकर संक्रांति नए साल का पहला त्योहार होता है. इसलिए ये लोगों के लिए काफी महत्व रखता है. हर जगह मकर संक्रांति बनाने के रीति-रिवाज अलग है, हर जगह इसके अलग-अलग नाम हैं. कई जगहों पर तो मकर संक्रांति को नए साल के तौर पर मनाया जाता है. इस पर्व को तिल और गुड़ की मिठास के साथ देशभर में मनाया जाता है.

इस त्योहार को ज्योतिष के नज़रिए से देखा जाए तो, ये पर्व तब मनाया जाता है, जब समस्त जगत को प्रकाश देने वाले सूर्यदेव धनु राशि से मकर में गोचर करते हैं. इसलिए इसे मकर संक्रांति कहा गया है. इसके अलावा कहा जाता है कि इस दिन नई फसलों की खेती शुरु होती है और पुरानी फसलों की छटाई होती है. इन धार्मिक महत्व के साथ महाभारत के महत्वपूर्ण किरदार भीष्म पितामह ने अपने प्राण त्यागने के लिए मकर संक्रांति का दिन ही चुना था. इसके पीछे आखिर क्या वजह थी जिससे भीष्म पितामह ने अपने प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण होने का इंतज़ार किया. आइए जानते हैं पौरणिक कथा.

भीष्म पितामह ने मकर संक्रांति के दिन ही क्यों त्यागे थे अपने प्राण?

महाभारत के मुख्य पात्रों में एक नाम भीष्म पितामह का भी आता है. भीष्म पितामाह राजा शांतनु और माता गंगा के पुत्र थें. उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान मिला था. 

महाभारत युद्ध के दौरान भीष्म शिखंडी के जाल में फस गए. साथ ही, भीष्म की मृत्यू निकट आ रही थी. इसलिए पितामह बाणों की शैय्या पर जाकर लेट गए. जिससे उनके शरीर में बाण ही बाण हो गए. अपने प्राण त्यागने के लिए वो बस उत्तरायण होने का प्रयास कर रहें थे. ऐसा इसलिए क्योंकि श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता में कहा है कि उत्तरायण के समय जो मनुष्य अपने देह त्यागता है, वे मोक्ष को प्राप्त होता है. भीष्म पितामह भी जीवन चक्र के मोह-माया से मोक्ष पाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने उत्तरायण के समय ही अपने प्राण त्यागे और मोक्ष को प्राप्त हुए.